ये माना के दम लेना तेरा हुनर है
हमें भी कहाँ तेरे तेवर से डर है
बुलाती है दुनिया तो आते हैं हम याँ
फ़क़ीरों का वर्ना ठिकाना न घर है
पड़ाव नही डाला चलते चला हूँ
ये जो ज़िंदगी है सफर ही सफर है
खड़ा था ज़मीं पे मसीहा जो अपना
कुल्हाड़ी के नीचे अभी वो शजर है
ये जो नक़्शे पा पेश-तर राहों में है
खुदा रहनुमा मेरा या रहगुज़र है
Copyright 2015 PoetShriramMurthi
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