तज़ुर्ब-ए-महोब्बत की शिकन आज भी है..
तेरी साँसों को सुनने की कशिश आज भी है..
बीत जाती है हर शाम रंजो की तनहाई में..
क्यूंकि हर ज़र्रे में तेरी महक आज भी है..
मुझको मालूम है..नहीं आसान तुझे मोती की तरह पिरोना..
पर हार-ए-ज़िन्दगी में तुझे पिरोने की चाहत आज भी है..
इल्म नहीं तुझे की मुझमे बस्ती है तेरे बदन की खुशबू..
जिस खुशबू में तेरे गुलाब की महक आज भी है..
काश हो पाती गुफ्तगू खुस से कभी..
उसके हाथ चूमकर तेरी तारीफ़ करने की चाहत आज भी है..
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