धरा पे मंच सजा हुआ था, नीले अंबर से ढका हुआ था !
आनें जाने की कड़ी निर्मम थी, कोई उम्र जवा कोई बूड़ी थी !!
कितने आँसू पीछे छूट गये, कितने मौसम पीछे रूठ गये !
पर जीवन का सत्य अटल है, मृत्यु ही उसका आरंभ और अंत है !!
प्रकृति पर कब बोझिल हुई, कब उसकी छाती रक्त हुई !
उसने अपना धर्म ना छोड़ा, ना कर्म का मुख मोड़ा !!
इंसान ही सदा कमज़ोर हुआ, अपने विषयो से मोह हुआ !
मिट्टी का मोल ना पहचाना, रिश्तो नातो को अनमोल माना !!
हर मोड़ पे सब छूट गये, कोई दगा हुए कोई रूठ गये !
वो फिर भी सत्य ना पहचाना, सत्कर्म ना उसने माना !!
अपने अहंकार मे चूर, शरीरी से होता रहा दूर !
समाज के पैमानो को, इंसानी सुख पाने को !
वो आशा के महल बनाता रहा, अपनी आत्मा से वंचित रहा !!
जब अंत समय शैया पे था, धरा पे वो अकेला था !
अब कहने को कोई बात नही, सुनने को कोई साथ नही !!
बाहुबल कमज़ोर हुआ, मन विषयो से दूर हुआ !
अब मृत्यु को अपना माना, सत्कर्म का मोल पहचाना !!
पर शैया की अग्नि धड़क रही थी, फिर अपना संदेश पढ़ रही थी !
एक और जन्म यू धूमिल हुआ !!
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