आब-ऐ-दीदाह का दरिया टहर सा गया है
हिस्सा मेरे जिस्म का मुझे ही परोसा गया है
अँधेरे तेरे शेहरो को रोशन करू भी तो कैसे
आँखें मूंदे तेरा कानून ज़िंदा है
चीख मेरी कोई सुनता नहीं,ख़ामोशी मेरी गुन्हगार है कटघरे में
क्या खूब रचाया है खेल फरेब का, कातिल बनाया है मुझे मेरे ही नूर का
क्या खूबी से मिटाये निशाने कातिल तूने, बिक गया ज़मीर तेरा चंद टुकड़ो के लिए
अफ़सोस करू तो किसपे करू ,क़त्ल कानून का हुआ हो तो फ़रियाद किस्से करू
भूल गया हूँ अब इलजाम किसको दूँ ,उस रात जो खोया उसका हसाब किस्से लूँ,
तारो की ज़ुबान आती तो जान लेता , दर्द तेरी रूह का बाँट लेता
भिखर जाती है जभी उम्मीद मेरी , समेट लेती है सब तस्वीर तेरी
चार दीवारो में क़ैद कब तक साज़िश होगी, बेआबरू कभी तो हैवानियत होगी
ज़ख्म नासूर करने वाला बेनक़ाब होगा ,क़र्ज़ तेरे बचपन का यूँही नहीं जाया होगा
खिजा का दौर भी एक रोज रुखसत होगा ,सितम का लम्हा भी शर्मसार होगा, बस उसदिन ये दर्द खत्म होगा, इस दाग़ का बोझ कब्रगाह होगा।।
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