• Published : 25 Aug, 2015
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धरा पे मंच सजा हुआ था, नीले अंबर से ढका हुआ था ! 

आनें जाने की कड़ी निर्मम थी, कोई उम्र जवा कोई बूड़ी थी !! 

कितने आँसू पीछे छूट गये, कितने मौसम पीछे रूठ गये ! 

पर जीवन का सत्य अटल है, मृत्यु ही उसका आरंभ और अंत है !! 

प्रकृति पर कब बोझिल हुई, कब उसकी छाती रक्त हुई ! 

उसने अपना धर्म ना छोड़ा, ना कर्म का मुख मोड़ा !! 

इंसान ही सदा कमज़ोर हुआ, अपने विषयो से मोह हुआ ! 

मिट्टी का मोल ना पहचाना, रिश्तो नातो को अनमोल माना !! 

हर मोड़ पे सब छूट गये, कोई दगा हुए कोई रूठ गये ! 

वो फिर भी सत्य ना पहचाना, सत्कर्म ना उसने माना !! 

अपने अहंकार मे चूर, शरीरी से होता रहा दूर ! 

समाज के पैमानो को, इंसानी सुख पाने को ! 

वो आशा के महल बनाता रहा, अपनी आत्मा से वंचित रहा !! 

जब अंत समय शैया पे था, धरा पे वो अकेला था ! 

अब कहने को कोई बात नही, सुनने को कोई साथ नही !! 

बाहुबल कमज़ोर हुआ, मन विषयो से दूर हुआ ! 

अब मृत्यु को अपना माना, सत्कर्म का मोल पहचाना !! 

पर शैया की अग्नि धड़क रही थी, फिर अपना संदेश पढ़ रही थी ! 

एक और जन्म यू धूमिल हुआ !!

About the Author

Amit Tewari

Joined: 19 Jul, 2015 | Location: , India

I am a Software Engineer and   DU Computer Science pass out.. I watch world with curiosity, like to weave situations in my words.Love to imagine things, love to argue with myself , improve as a person, sing a song, write a song, write ...

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