याद है वो अलसायी दोपहर,
जब हम दोनों बैठे थे C C D में।
कोल्ड कॉफ़ी पी रहे थे तुम,
और मैं चुपचाप देख रहा था तुम्हें।
वो छोटी छोटी गहरे भूरे रंग की मेज़ें,
बड़ी संजीदा जान पड़ती थीं।
एक अजीब ख़ामोशी थी आलम में।
पर तैर रही थी एक शरारत,
कहीं भीतर मेरे अंदर।
फिर अचानक कॉफ़ी का सिप लेकर
तुम बोले मुझसे-
बोलो कुछ खामोश क्यों हो बोलते क्यों नहीं?
मैंने कहा-
क्या बोलूं?
मन करता है कभी कभी कि
मारूं खींच कर एक थप्पड़ तुमको।
एक सेकेंड को थम से गए थे तुम,
और फिर संजीदा होकर कहा था-
मार लो थप्पड़।
और फिर बढ़ा दिया था तुमने
अपना गाल मेरे आगे।
बिचका लिया था मुंह।
हो चुके थे तैयार खाने को थप्पड़।
और मैंने चुपके से आगे बढ़,
नज़र बचा दुनिया से,
चूम लिया था गाल तुम्हारा।
खिलखिला पड़ी थी फ़िज़ा तब।
मुस्कुरा पड़े थे तुम,
महक उठा था मैं।
और दमक उठा था C C D.
अश्वत्थ
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