फितूर ऐसा हो की पाके मंज़िल भी सुकून न मिले !
गर मिले चैन तो बेचैनी का फिर कोई नया सबब मिले !!
चुभता है दर्द बनके उसकी शहादत का मंसूबा !
की आज़ादी था उसका फितूर, चमड़ी नहीं विचारो को था बदलना !!
उल्फत ही क्या थी जो उससे लोहा लेती !
नतमस्तक थी हर फ़ौज़ जो उसके इरादो से लड़ी !!
गम भी उससे खीजा की उसने मौत को हसके गले लगाया था!
जवानी की चिड़िया को उसने बाज़ो से भिड़ने में गवाया था !!
उसकी चिता ने भी जलते कई अँधेरे रोशन किये !
और इस मुल्क के वज़ीरों ने बस उसपे हाथ ही सेके !!
हर आम-ओ-ख़ास उसकी वतन परस्ती का मुरीद है !
फिर क्यों उसे शहीद कहने से परहेज़ है !!
रूह आज उसकी ये देख कहीं चोट खायी होगी !
की एक गैर ने खंजर सरेआम मारा था तब !
और अपनों ने जी भर के उसे कुरेदा है अब तक !!
हिलती है दीवारे हमारे मुल्क की, अपना ही खून करहाता है !!
चाँद सिक्को के आगे हर कोई अपना ईमान बिकवाता है !!
हालें वतन और क्या सुनाऊ !
जहाँ छोड़ा था वहां से और पीछे आ गये है !
हम अपनों से लड़ते है और गैरो के गले मिलते है !!
हम अब वतन नहीं, जात और धर्म के लिए मरते है!
भूले नहीं है शहादत तुम्हारी , बस तेरी चर्चा से डरते है!!
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