एक आग सी फैली है साबरमती के किनारे
जवान खून पिघला है आरक्षण के बहाने !!
महत्वकांक्षाओं के पतंगों ने सारे शेहेर में ज़हर घोल है !
चलने के हुनर को आरक्षण की बैसाखियों के सहारे छोड़ा है !!
एक वो थी जवानी जो सरहद पे लुटाई !
एक यह है जो बहते पानी सी यूँ ही गवाई !
एक उठी थी कौम को जगाने !
एक चली है सबको अपाहिज बनाने !!
काबिलियत जहाँ गर्व है हमारी पीड़ी की !
आरक्षण एक पीड है मेरी जवान नसल की !!
किसी गैर की थाली की रोटी छीन के भूख नहीं मिटती !
आगे बढ़ने की सीढ़ी ,किसी के कंधो पे चढ़ के नहीं मिलती !!
बनता है सोना भी आग में पिघल के !
बेवजह कोयले की भी कोई कीमत नहीं होती !!
हुनर की भट्टी में देखकते अंगारे अपना वजूद बनाते है !
बेवजह खैरात से किसी की शान नहीं बनती !!
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