हाज़ी कहता है,
ये ज़िन्दगी की किताब है तन्हा, ज़रा धीरे पढो ।
हर छोटे हिस्से की अपनी वक़र होती है ।
कभी हवा मे कुछ पन्ने पलटते हैं ।
कभी कुछ महक से रौनक अक्सर लोट आती हैं ।
इन ताज़गी के हिस्सों की भी अपनी वकर होती हैं ।
ज़िन्दगी की किताब हैं तन्हा, ज़रा धीरे पढ़ो ।
मौके दर मौके पन्ने बदलते हैं।
अक्सर यूँही मौसम की पहचान होती हैं ।
उम्र का तकाज़ा लोग यूँही नहीं देते हैं ।
उन सफ़ेद बालों में आखिर कुछ तो बात होती हैं ।
ज़िन्दगी की किताब हैं तन्हां, ज़रा धीरे पढ़ो ।
उस बड़े महल में अदब बहुत मिलता हैं ।
वहाँ छोटी–छोटी बातों में भी कुछ बात होती हैं ।
चद्दर में आने पर मौसम का पता चलता हैं ।
आखिर उन ठण्डी हवाओं की भी कुछ वकर होती हैं ।
ज़िन्दगी की किताब हैं तन्हां, ज़रा धीरे पढ़ो ।
जवांनी की दहलीज पर कई सपने बुनतें हैं ।
तब बारिश की बूंदे भी सरगम होती हैं ।
ये नज़र कायनात तक उस महक का पीछा करती हैं ।
आखिर उन जवां जज्बातों की कुछ तो वकर होती हैं ।
ज़िन्दगी की किताब हैं तन्हां, ज़रा धीरे पढ़ो ।।
यंहा हर किस्से की और हर हिस्से की अपनी ही वकर होती हैं ।।
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