रोज़ रात को
वो चाँद का साथ चलना
कभी बादलों की ओट से निकलना
तो कभी छुप जाना
कभी ओझल होना दरख़्तों में
तो कभी अपनी चाँदनी बरसाना
वो चाँद के साथ
अजब-सा सुक़ून था
उससे रोज़ मिलना भी
मेरा इक जुनून था
आज चाँद को देख
मन कसक उठा
और पलकों पे आकर
एक आँसू रुका
चाँद आज आधे से थोड़ा ज़्यादा था
और रात आधी से थोड़ी कम
चाँद भी था खोया- खोया सा
कुछ अनमना, कुछ सोया सा
थोड़ा आधा, थोड़ा अधूरा
अपनी ही धुन में खोया सा
सोचा आज चाँद से बात करूँ
रोज़ सुनाती हूँ अपनी कहानी
आज उसके भी जज़्बात सुनूँ ………………………………………
ऐ चाँद!
कभी तो दिखते हो महबूब से
अपनी चाँदनी मुझ पर बरसाते हो
तो कभी हो जाते हो
मेरा ही अक़्स
कुछ खोये, थोड़े अनमने से रहते हो
ख़ुश होते हो
तो बढ़ जाते हो
गहन अंधेरों में वर्ना
डूब जाते हो
क्यूँ नहीं रहते तुम एक से
कहो तो क्या तुम कहते हो? ……………………………………
ये सुनकर चाँद बोला……
तेरा ही ये तो क़ुसूर है
तेरे महबूब से ही
तेरी हर राह पुरनूर है
वो नहीं होता जो साथ तेरे
तुझे हर रात अमावस लगती है
पर जब-जब हो साथ तेरे वो
अमावस में भी तुझे
पूनम की झलक मिलती है
मैं कहाँ घटता-बढ़ता हूँ
मैं तो वही रहता हूँ
बस तुम्हारी सोच से ही
कभी ईद का चाँद हो जाता हूँ
तो कभी चौदहवीं का कहलाता हूँ।
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