
महज एक ख्वाब
की जिसमे ,
तुम नज़र आती ,
और यू लगता .
तुम हो के नही
सच मे,
क्या महज एक ख्वाब,
की जहा .
सारे मौसम
मेहरबा
गर्म सर्द या सीलि सी हो
हवायें ,करे
इश्क़ ही बया
जब की सुबह
एक दुआ सी थी
और शाम
एक हासिल मंज़िल
जब की सारी चाभीया
पास थी
जिन तालो को तोड़ना था
मुश्किल
नीले आकाश के सागर से
मोतिया
खुद टूट मेरी
ख्वाहिस पूरी करता
गम तो ऐसे मेहमा
कि जातें
जब तक मैं ना हा कहता
आज कुछ भी
नही
जो हुआ केरता था
पहले कभी
मौसम तो वाही है
तासीर बदल गयी
धूप अब जलाती है
हवाए
जैसे झकझोरते हैं
कुछ याद दिलाते है
फिर थक के
बेजान हो जाते है
आसमाँ चुपचाप
अपना कारोबार करता है
आजकल बिन बात बादल करता है
सुबह से शाम
तो होती है
पर इनके साए मे
कही
मेरी तन्हाई
बहुत रोती हैं
चाँद को इश्क़ सूरज से
तो फिर क्या रंज फुरकत का
कभी आधा कभी पूरा
चाँद रिझा रहा किसको
क्या हासिल हैं इस हरकत का
वो तो एक रोज देर तक
जगा था चाँद और देखा
की सूरज उसके बाजू मे ही था
पर उसे ना मिल सका
अब कभी आते है तारें
छेड़ चाँद को पूछे
तो कहता है
नही कुछ था और ना होगा
हम दो सफ़े हैं पहले और आख़िरी
और आसमाँ एक किताब
हम साथ है जुड़े
अगर लगते हैं
तो जानो ये है
महज एक ख्वाब
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