
चित्त मे, ज्सिके नही बल का कोई घमंड
चरित्र से प्रज्ज्वल, और निष्ठावान हो अखंड
स्वरो मे निर्भयता जिसके विराजमान हो
कर्म से जिसके सत्य का आयुष्मान हो
संभाव और सज्जन रहे नारी के साथ भी
निस्पाक्ष कहे जब कहे वो कोई बात भी
दमन पे ना विस्वाश करे ना व्यभीचार मे
जो दे सुरक्षा नारी को हर अत्याचार मे
नारी हृदय को छू सके नाकी शरीर को
अंदर भी वो ही भाव हो जो दखिहे बाहिर को
जो विस्वाष्पात्रभी हो और हो मित्र लायक भी
नारी का साथी भी हो और हो उसका नायक भी
जो नारी को अपने घर की, कोई वास्तु नही समझे
औरो को नासमझ और, खुद को अरस्तू नही समझे
जिसको की मर्यादा का हर वक़्त भान है
सही अर्थ मे वही मर्द की पहचान है….
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