कितना विचित्र है ये मन मेरा
कभी शांत कभी अस्थिर हो उठता है ।
कभी पहुँच जाता बादलों के पार
फिर क्षण में धरती की ओर ।
कभी स्फूर्ति इस गति की
जैसे तीव्र पवन का वेग,
फिर थम जाता बन के आलस्य का संसार ।
कभी जलप्रपात सा अट्टहास करता
फिर नदी की निर्मल धार ।
कभी शिशु की पवित्रता
फिर मानुष के विचार ।
कभी सफ़ेद कमल के पंखुड़ियों पर पड़ी ओस की बूँद
तत् क्षणों मे गर्जन करते मेघ का बहाव ।
अविरल, सांतर
उद्यमी, आलसी
सरल, कपटी
इतने अद्भुत इसके विचार
जिसमे सारा जगत् निहित ।
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