ओढ़ चांदनी घूँघट ,जब निशा आई
आगमन की आहत वो थी जो झींगुर का संगीत था,
चाँद उजियाला लिए आ रहा मनमीत था।
गोधूलि बेला द्वार आ किवाड़ खटकने लगी,
माध्यम शीतल पवन जब बाल सहलाने लगी।
ओढ़ चांदनी घूँघट ,जब निशा आई।
शाम कुछ सहमी सी थी बादलो की ओट में,
संतोष का अम्बर था उस शाम मिलती नोट में।
सोंध नारंगी अदाए पश्चिम में लगी थी उमड़ने,
गृह रसोई एक बार फिर लगी थी संवरने।
कुछ जड़ था कुछ चेतन था ,
कुछ थमा हुआ गतिमान हुआ।
ओढ़ चांदनी घूँघट ,जब निशा आई।
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