लहरों पे चलते हुए पत्ते को कुछ याद आया,
पीछे छोड़ आया मैं अपना आशियाना |
कुछ ऐसा ही लगा जब मन भाग आया,
एक सपने की आड़ मे वो घर छोड़ आया|
महत्व बहुत था जिन सपनो का,
उन सपनो ने बहुत तडपाया|
जाने क्या चाहिए था मन से,
की हर जगह होकर भी मैने खुद को दूर पाया|
एक समंदर मिला जिसे तैरना था,
मानो, बिन पानी सपने का बोझ ढोना था|
एक वक्त मिला फिर रुकने का भी,
तो मन को फिर ना सुकून मिला|
मिलो दूर तक जैसे चलना था,
मिटटी किनारे की चूमना था|
जब पहुचा मैं, मन और सपना निराला,
मेरा ही आशियाना खड़ा था लिए फूलो की माला|
स्वागत हुआ, सत्कार हुआ,
मानो जंग कोई मैं जीत आया|
तब लगा सपना नही किसी बोझ का साया,
ये तो है मंजिल पर सुकून की छाया|
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