मैंने तड़पते देखी हैं, तेरे लब पे बातें रुकी हुई ।
एक नदी तुझसे बहती है, सरस्वती सी छुपी हुई ।
आँख चमक उठती है जब-जब दिल अठखेली करता है ।
तेरी मजबूरी होगी जो तू कहने से डरता है ।
कोई देख न पाए इनका सच, रहती है नज़र यूँ झुकी हुई ।
एक नदी तुझसे बहती है, सरस्वती सी छुपी हुई ।
दावानल मन के भीतर और बाहर बर्फ़ की चादर है ।
अन्दर बन रह जाए लावा, ये भी होता अक्सर है ।
किसे पता कब धधक उठेगी कसक पुरानी बुझी हुई ?
एक नदी तुझसे बहती है, सरस्वती सी छुपी हुई ।
हर मौसम तू क्यों सफ़ेद बस ओढ़के अपने अंग चले ?
कुछ नीले, कुछ लाल-गुलाबी रंगों में भी ख़्वाब ढले ।
तू भी खिल, हर शाख पे कितनी नई कोपलें उगी हुई ।
एक नदी तुझसे बहती है, सरस्वती सी छुपी हुई ।
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