इक हिस्सा भीतर का, महरूम सा रह गया
सिरहाने पर सिसकता, तिनके सा वो चुभ गया ॥
अज़ाब की लहर उठी, मन्न आज़र्दाह छूट गया
अब्र की तरह वो घना सा; हिज्र में गिरिया छलका गया ॥
चाहतों का मुक़द्दर ही अजब; राहों में बिखरे औराक़ सा
लिपटे जो कल शाखों से, आज मट्टी में वो मिल गया ॥
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