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वो कहते हैं
तुम रमती नहीं रंग में
इस दुनिया और इस दुनियादारी के;
ज़रा कोई पूछो उनसे
कि भला
रंगीले कीचड़ में
छप-छपाने से
और
दुनियादारी की
अकड़-भरी दीवार पर
सिर मारने से
क्या हासिल होता है?
गंदा भी हमने होना है,
खून भी अपना रिसना है ॥
इससे भले तो हम
अपनी उस कोठरी में हैं
जहां किताबो का धेर है;
वक्त के छल्लो से
धूल चड़े उनपे चाहे
या चाहे हो जाये
पन्ने तितर-बितर
कड़वे एहसासों से;
शब्द जो कल छपे थे उनमे
आज भी
उनहे वही तो रहना है ॥
दुनिया का तो क्या है;
ये तो गिरगिट को भी
मात देती है ॥
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