हक़ की लड़ाई छिड़ी है हर तरफ,
मंच से भाषण तक सीमित ये सारी है,
पर आखिर क्यों बहस ये जारी है ?
क्यों दिखाते हम बेबसी और लाचारी है?
समस्त सृष्टि के आरम्भ से,
नारी की तो बराबरी की हिस्सेदारी है,
फिर क्यों तेरे नसीब में आई,
बेवजह ये चार दिवारी है?
इतिहास के पन्नों में दर्ज है,
तेरी असंख्य मिसालें और काम,
फिर मजबूर क्यों हो आज,
परिभाषित करने को अपना नाम?
जन्म लेकर बेटी बनकर,
बड़ी होकर बहु बनकर,
साथी का सहारा बनकर,
माँ के रूप में दोस्त बनकर..
हर कदम पर, हर रूप में,
तुम निस्वार्थ फ़र्ज़ निभाती हो,
फिर क्यों इस खोखले समाज में,
बार बार खुद को आज़माती हो?
जगा तू आत्म-विश्वास खुद में,
तेरा अस्तित्व ही तेरी पहचान है,
प्रदर्शन की विषय वस्तु नहीं तुम,
तू जग-जननी, तू धरती पे वरदान है !
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