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मैं जाता अपने गाँव सदा, गर्मीं की छुट्टी रहा वहां 

वहां सुबह ताज़गी देती थी, और शाम सुहानी होती थी 

 

कोल्हू की आवाज़ मधुर, और धुंआ धुंद सा दिखता था     

मुर्गे, कोयल, मोर, चिरा; रहते थे मिल कर सदा वहां

 

वो बकरी घुंगरू पहन पहन और मिट्ठू घर में चहक चहक

पड़वा मस्ती में झटक पटक और भैंसी दौड़ लगाती थी

 

वो सारे सुर का संगम बन, कानों में रस सा भर जाना

वो कुएं झुक के चिल्लाना, जामुन पे पत्थर बरसाना

 

वो ताल किनारे मिटटी में, लकड़ी से लिखना नाम सदा

नीम तले वो सुस्ताना, पीपल के नीचे घबराना

 

पैरों में चप्पल पहन पहन, मेढ़ों पे चलना ठुमक ठुमक

रख अपनी लाठी कंधे पे, और बाँध के गमछा माथे पे

 

न धूप लगे, न ताप चढ़े, बस घुस जाना उस पानी में

वो ठंडा पानी झट से यूँ, धरती से बहार आता था

 

तन मन की ऐसे प्यास हरे, जीवन तो तर हो जाता था

चूल्हे की रोटी, मक्खन में, जो गुड़ के संग में खाते थे

 

साँझ ढ़ले, चौपाल सजे, वो बतियाना  संग दद्दू के

वो लाना शक्कर घोल घोल, कोई दे दे हमको छांछ कभी

 

अपनापन ऐसा मिले वहाँ, बरसों तक हमें बुलाता था

अब छोड़ दिया जाना हमने, अब वक़्त नहीं है जाने का

 

वो साँझ सवेरा छूट गया, वो बड़ी हवेली छूट गयी

रहते हैं अब हम सौ गज में, और गाँव में जाना छूट गया

 

ये आगे कैसा हम बढ़ आये, खुद ऐसे यूँ बेज़ार हुए

क्या सोचा था क्या मिला हमें, ये कैसी यार तरक्की है

 

छुड़ा दिया इसने हमसे, वो खेत, हवेली पुरखों की

क्या सोचा था क्या मिला हमें, ये कैसी यार तरक्की है

About the Author

Agyeya Tripathi

Joined: 14 Aug, 2015 | Location: , India

Poet at heart and development consultant at work, the grass root level population is inspiration to my writing and work....

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