कभी चंदा को देखा है, अँधेरे तनहा नभ में वो
कभी आधा अधूरा है, कभी पूरा कभी गायब
सिमट जाता कभी है वो, कभी विकराल होता है
कभी वो भक् उजाला दे, कभी गड़ता है अँधियारा
कभी होता है मस्जिद में, कभी कर्वे में जाता है
वो देता ईद की खुशियां, या करता उम्र लम्बी वो
नया हर रात दिखता है, लगे है चंचल इसका मन
हिरन की आँख के जैसे, ठहरता है न रुकता है
कुंवारी पायलों का मन, है इसकी राह पर देखो
कभी चुपके से आ जाना है, कभी बजना मोहल्ले में
ये इसका रूप है ऐसा, या कुछ किरदार है गड़बड़
कभी भी कुछ भी करता है, बदलता है हर एक पल ये
मैं निकला इन सवालों संग, अमावस के अँधेरे में
पड़ी सूनी थी वो टहनी, जहा लटका था रोज़ाना
पड़ी घाटी भी सूनी थी, जहाँ दिखता था मतवाला
वो खिड़की भी अकेली थी, वो बादल भी पड़ा रुस्वा
नदी के घाट थे गुमसुम, है सागर भी पड़ा प्यासा
नहीं है आज नभ में कुछ, पड़ी है सूनी धरती क्यों
मैं चढ़ कर उस हिमालय पे, लगा हूँ व्योम से मिलने
जो नोचा कुछ सितारों को, हिलाया कुछ नज़ारों को
विवश हो के चला आया, मुझे मिलने किनारे पे
क्षितिज पे घर है उसका भी, सितारों के झरोखों में
दना दन उन सवालों से, लो घायल कर दिया उसको
वो पत्थर सा हुआ अब तो, ये क्या से क्या किया मैंने
रुका संभला नज़ाकत से, बताई मन की पीड़ा जो
नहीं मैं कुछ नहीं करता, दिवाकर है वो अलबेला
उसी के रंग से चमकूँ, उसी का मन लुभाता हूँ
उसी के प्रेम में मैं तो, सदा चितवन बदलता हूँ
वो मेरा इष्ट है देखो, उसी की मैं दया में हूँ
वो कान्हा है मैं राधा हूँ, वो गिरधर है मैं मुरली हूँ
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