• Published : 04 Sep, 2015
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कुछ दिनों से चलते चलते
पड़ गयी हूँ बहुत अकेली
अब तो घुटने भी साथ छोड़ने लगे हैं
कदम उठने से डरने लगे हैं
                                                                           

  उम्र कुछ खास नहीं
पर कमर दोहरा गयी है
मांसपेशियां भी हैं अकड़ी सी
ज़िन्दगी का बोझ जो उठा रही हैं

 

एक सवाल है अनसुलझा सा
किस के पास है जवाब
आखिर किस ख़ुशी में
दी गयी ये ज़िंदगी

 

पूछा नहीं किसी ने मुझसे
क्या मैं ऐसे  जीना चाहती हूँ
कभी  सुना भी नहीं
मेरा जवाब है "नहीं "

 

मैं छोटी , बहुत छोटी हूँ
और जीना बहुत बड़ा काम

 

इतनी छोटी कि मेरे हाथ नहीं पहुँचते खुशियों तक
और सुना है
खुशियां ज़िंदगी की चाबी है

 

किसी ने बेटी ,किसी ने बहिन
तो किसी ने माँ जाना
क्यों किसी ने भी मुझे
"मैं " नहीं  माना

 

मैं थक चुकी हूँ
हार गयी हूँ
सपनो का हाथ क्या थामा
ज़िन्दगी बुरा मान गयी

 

नंगे पैरों चल रही हूँ
कांटे चुभ रहे
सिर पर कोई साया नहीं
और धूप भी है तेज़

 

हाथ के पास भी साथ नहीं
अकेले खोने का डर है
आँखें नहीं खोलना चाहती
मुझे रोशनी का डर है


समझ नहीं आता कुछ
मुझे मेरे वज़ूद से डर है

मैं  ज़िंदा हूँ अभी तक
मुझे इस बात से डर है

 

मेरे पास भी एक दिल है
मुझे भी कुछ महसूस होता है
महसूस नहीं करना चाहती कुछ
मुझे मेरे दिल से डर है

 

ज़िन्दगी ने इस कदर रुलाया है
कि अब हँसने से डर है

हालत यूँ है कि अब तन्हाई को
तन्हा होने का डर है

 

मैं सब कुछ छोड़ देना चाहती हूँ
मुझे ज़िन्दगी से डर है
मुझे इस डर से डर है

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Divya Chauhan

Joined: 15 Aug, 2014 | Location: ,

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