
मैं क्यों लिखती हूँ
ये मैं ना जानू
पर कुछ तो हैजो मैं लिखना चाहूँ
ऊचाइयों को छूने के लिए
सीढ़िया कई है
ऊन सीढ़ियों को पार करने के लिए
मैंने अपनी कलम में स्याही भरी है
ज़िन्दगी का हर पन्ना मै खुद लिख्ना चाहूँ
जब तक कलम में स्याही है बस लिख्ना चाहूँ
मंज़िल दूर है
साफ़ नज़र नहीं आती है
लोगो की इस भीड़ में मेरी अंतर आत्मा सहम से जाती है
ज़िन्दगी की भीड़ हर रोज एक नया पाठ सिखाती है
उस पाठ को लिखते हुए मेरी रूह सी काँप जाती है
मेरे हर कदम की दुनिया वालो के सामने सुनवाई होती है
दुनिया की अदालत में, मैं दोषी ,और दुनिया जज होती है
अब तो मन करता है किसी और को पकड़ा दू अपनी ज़िन्दगी की किताब
वही भरे इसे और वही लिखे इतिहास
पर फिर भी मन में एक उम्मीद की किरण बाकी है
मैं दुनिया को बदलूगी
लिखुंगी नया इतिहास
अपनी कलम की ताकत से
दुनिया के मन में नयी सोच की स्याही भरुंगी
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