• Published : 30 Sep, 2015
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मेरे मन को गौर से देखो, मैंने दुनिया को देखा है

मेरे मैं बनने की मुझ पर, कहीं न कहीं एक रेखा है

 

कुछ रेखाएं बचपन की हैं, जब घुटने छील के पेड़ चढ़ा

मास्टर जी की छड़ी की कुछ हैं, कुछ उसकी जो मैंने पढ़ा

 

कुछ साईकिल से गिरने की, कुछ नानी की पुचकार की

कुछ मेलों मेलों फिरने की, कुछ बाबा की फटकार की

 

कुछ तब की जब एक लड़के ने, गली में मुझको पीटा था

और तब की जब उस लड़के को, गिरा के मैंने घसीटा था

 

और तब की जब गुड़िया की, डोली कंधे पे उठाई थी

और तब की जब माँ के हाथ में, रखी पहली कमाई थी

 

कुछ रेखाएं तब की जब मैं, सिर्फ अकेला लड़ता था

कुछ उन रातों की हैं, परदेस में सोना पड़ता था

 

कुछ गहरी रेखाओं का, जनम तभी हो पाया था

जब बाबा के शव को मैंने, इन कन्धों पे उठाया था

 

कुछ रेखाएं बच्चों को, उठा उठा चलने से बनी

कुछ रेखाएं नोक-झोंक की, जो तेरी यादों में सनी

 

अब चलता हूँ यही नियम हैं, समय आ गया जाने का

जला पुरानी रेखाओं को, नयी रेखाएं बनाने का

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Trishant Singh

Joined: 21 Aug, 2015 | Location: ,

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