
आज असमंजसमें थी ज़रा – जग ने जो किया था विचित्र अनुरोध –
“तुम क्यूँ नहीं लिखती गीतों में दुःख, पीड़ा और शोक ?”
ज्यों ही उठाई कलम लिखने को दुःख भरे अल्फ़ाज़
त्यों ही सुनाई दी मुझे सिसकियों की आवाज़।
जो कलम मेरे लिखने का सदा इंतज़ार किया करती ,
वो आज स्याही की जगह नीले अश्रु बहा रही थी ।
कागज के टुकड़े ने भी विलाप किया।
दबे स्वर में अपना दर्द बयां किया ।
“ तुमने तो कहा था सिर्फ खुशियों के शब्द बोगी ।
फिर क्यूँ आज पीठ पर मेरे गम का छुरा घोंप दोगी ?”
माफ करना जग तुम्हारी यह ख़्वाहिश पूरी कर सकती ही नहीं ।
जिनकी बदौलत लिखती हूँ, उनसे शिकवे रख सकती ही नहीं ।
About the Author

Comments