हर गुज़रती रात,
जब दुनियादारी के सब वजूदों का एक-एक लिबास खोलकर,
सबसे मुख्तलिफ़,
ख़ुदी का पैराहन ओढ़े अपने सबसे करीब जाता हूँ,
तो खुद को
इस जहां के अर्श पे पाता हूँ।
देखता हूँ,
एक खस्ता-हाल से एक औज तक का सफ़र तय करता
उम्मीदवार शख्स,
जिसका ज़हन इज़तिराब से भरा है और आँखें ख्वाब से,
उसी इत्मीनान-ओ-चैन में कब न जाने,
नींद दबे पाँव ख्वाबगाह चली आती है
रफ्ता रफ्ता
सिरहाने से मेरी आँखों तक।
सुबह जो देखता हूँ
तो वो शख्स दिखता ही नहीं दूर- दूर तक,
सोचता हूँ,
तो यूँ गुमान होता है कहीं वो रात का जुगनू तो नहीं
जो कि सूरज से इस रौशन दिन में, दीख सकता ही नहीं ?
या कहीं,
करवटें लेने में मेरी आँख से वो गिर गया हो ?
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