
जो मौन तजे परित्याग करो,
मेरे हित में हुंकार भरो|
तुमसे मिलने को व्याकुल मेरा,
तन मन यही पुकार रहा|
वो मेरी धारा बांध रहें,
हर कण जिनका आधार रहा|
तुम तक जाने क मेरे पथ में,
इतने कांटे भर गए हैं |
देख क पग पग ये बंधन,
भगीरथ क आँखे भर गए है |
जग में सब कुछ खो कर अपना,
बस तुमको ही पाया है|
परिवर्तन को जितना तरसी ,
उतना दुःख गहराया है|
अपने प्रति समर्पण का,
इतना तो सत्कार करो|
युग युग का मैं आधार बनी,
अब तुम मेरा आधार बनो|
अपनी शीतल काया से मैंने,
मेघों को मल्हार दिया|
मृत होती अधरों को मैंने,
जीवन का श्रृंगार दिया|
सावन का स्वागत कर मैंने,
पतझर का भी है वार सहा|
खिली बसंतों में फिरसे से ,
हर ऋतुओं को सत्कार दिया|
सब दुःख को झेल मुझे ,
चैन तभी मिल पता है|
मेरा मीठापन जब तेरे ,
खारे में मिल जाता है|
मुझसे मिलने को नियम का,
अब तुम तो प्रतिकार करो |
युग -युग का मैं आधार बनी,
अब तुम मेरा आधार बनो|
ना मुझको अवरुद्ध किया है,
जटिल श्रृंखला पर्वत का|
न तुमसे मिलने को रोका,
आशूर कोई दानव दल का|
कदम नहीं बढ़ पते हैं ,
अब पाओं भरे है छालों से|
देख क अपनों की बेरहमी,
मन भर गए सवालों से|
मिलन घरी को तुमसे निकली,
टूट रही हूँ राहों में |
तुम भी कुछ पग आगे बढ़ लो,
ले लो मुझे पनाहों में|
अब मुझ तक आने को तुम,
खुद ही खुद को तैयार करो|
जब मेरी निर्मल धाराएं,
स्वतः लुप्त हो जाएगी|
जब तरस रहें अधरों को मेरी,
नींद नहीं मिल पायेगी|
तब विचलित हो कर ह्रदय तेरा,
मुझे अपने पास बुलाएगा|
अंकुश न रहेगा तुम पर तब,
जर्रा जर्रा हिल जायेगा|
गर तब टुटा ये मौन तेरा,
क्या प्रलय नहीं आ जायेगा|
जीवन से भरी हर आँखों में,
क्या सुन्य नहीं रह जायेगा |
उस महा प्रलय से रक्षण,
को तुम अब मेरा स्वीकार करो|
युग युग का मैं आधार बनी,
अब तुम मेरा आधार बनो|
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