लबों की लरज़िशों से दिल की कसक छुप न सकी
झुकि-झुकि सि निगाहें, संभल-संभल के उठीं
हया ओ शर्म का ज़ेवर, जो पहन कर आए
ना किसी और गहने की फिर कमी हि लगी
उस ने राग-ए-तरन्नुम नज़र से छेड़ दिया
दिल के साज़ पे, उल्फत की धुनें बजने लगीं
लदे - लदे थे जहाँ फल, दरख़्त झूल गया
जहाँ पे खाली थी शाखें, तनी-तनी हि रहीं
सुबह को ओस की बूँदो से जब सजी धरती
फलक को अपने भी दामन मे कुछ कमी सि लगी
निज़ाम-ए-इश्क़* बनाया था इस तरह चुन कर
सभी था उस में, मगर इश्क़ की कमी सि लगी
*निज़ाम-ए-इश्क़ = रिश्तेदारों द्वारा तय की गयी शादी , Arranged Marriage
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