
यूँ तो फिलहाल कोई नहीं है
ज़हन में,जिसे सोच के ये कविता
लिख रही हूँ , पर अक्सर आज कल
ये ख्याल मन में पनपता हैं
क्या प्यार दोबारा होता है?
यूँ तो मैंने एक पेड़ को उजड़ते देखा है
यूँ तो मैंने एक फूल को टूटते देखा है
पर
मैंने उसी पेड़ पे नयी कोंपल फूटते भी देखी है
मैंने उसी फूल को भगवान पे चढ़ते हुए भी देखा है
जिस तरह बारिश के बाद इंद्रधनुष दिखाई देता है
क्या उसी तरह मेरे जीवन में भी प्यार दोबारा आ सकता है?
जैसे हर घनघोर अँधेरी रात के बाद उजाला होता है
बहुत समय तक शोर में रहने के बाद सन्नाटा अछा लगता है
वैसे ही क्या जीवन में सब कुछ अस्थायी होता है?
क्या प्यार से नफरत करने वाले लोग प्यार कर पाते है?
या फिर इसका ठीकरा भी सब किस्मत पर फोड़ देते हैं?
जैसे कश्ती की पतवार मांझी के हाथ में होती है
और वो उस पतवार के सहारे किसी भी दिशा में जा सकता है
क्या उसी तरह जीवन हमारी कश्ती है और प्यार एक पतवार?
क्या मांझी के जैसे उस पतवार से जीवन का रुख मोड़ सकते हैं?
क्या उन् मृत एहसासो को दोबारा ज़िंदा किया जा सकता है?
क्या किसी एक से किया वादा किसी दुसरे के साथ निभाया जा सकता हैं?
क्या प्यार दोबारा किया जा सकता है?
About the Author

Comments