आज इक कविता लिखी,
कल दूजे को सुनायी ,
परसों डायरी में उतारी ,
चौथे दिन रद्दी के ढेर में पड़ी थी,
अब कविताये शक्ल नहीं लेती आन्दोलन का ,
ना ही जन्म दे पाती है इक क्रांति को ,
क्या कवितायेँ बाँझ हो चली है ? ? ?
कवितायेँ अब "पत्थर तोड़ती अबला " को नहीं देखती ,
ना ही "वीरो के बसंत को",
कवितायेँ "लकुटिया टेक चलते भिखारी का चित्रण " नहीं करती,
ना ही "वारिस साह " को कब्र से आवाज़ देती है
कविताये "बसंत -पुष्प " की तरह सुवासित नहीं होती,
कवितायेँ अब दिलो में जोश नहीं भरती,
जब शब्दों का भावना से सार्थक मिलन होता है
तभी इक कालजयी कविता का जनम होता है
हाँ , मेरी भी कविता बाँझ है
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