• Published : 30 Sep, 2015
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आज इक कविता लिखी,

कल दूजे को सुनायी ,

परसों डायरी में उतारी ,

चौथे दिन रद्दी के ढेर में पड़ी थी,

अब कविताये शक्ल नहीं लेती आन्दोलन का ,

ना ही जन्म दे पाती है इक क्रांति को ,

क्या कवितायेँ बाँझ हो चली है  ? ? ? 

कवितायेँ अब "पत्थर तोड़ती  अबला " को नहीं देखती ,

ना ही "वीरो के बसंत को",

कवितायेँ "लकुटिया टेक चलते भिखारी का चित्रण " नहीं करती,

 ना ही "वारिस साह " को कब्र से आवाज़ देती है

कविताये "बसंत -पुष्प " की तरह सुवासित नहीं होती,

 कवितायेँ अब दिलो में जोश नहीं भरती,

जब शब्दों का भावना से सार्थक मिलन होता है

 तभी इक कालजयी  कविता का जनम होता है

हाँ , मेरी भी कविता बाँझ है

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Shubhash

Joined: 23 Aug, 2015 | Location: , India

Still in search of myself what i m ...

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