• Published : 30 Sep, 2015
  • Comments : 1
  • Rating : 5

कोई- कोई रात, जलती, बुझती 

सुलगती है साथ साथ 

बस कोई -कोई रात

 समझती है आपका मिज़ाज़

 

कोई कोई रात पसर जाती है 

पैर मोड़ कर 

और करती है निगहबानी 

बंद दरवाजों के आस पास 

 

कोई कोई रात ब्लॉटिंग पेपर जैसे  

सोख लेती है दर्द 

कोई कोई रात अपने लिए 

एक कब्र खुद कर लेती है तलाश 

 

कोई कोई रात अपना बिन पैरहन जिस्म 

दे देती है उधार 

कोई कोई रात दे जाती है आवारगी 

छीन लेती है होश-ओ-हवास 

 

कोई कोई रात कोई कहानी सी 

खुलती जाती है 

कोई कोई रात बन जाती है नदी 

और बुझा देती है प्यास 

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Promilla Qazi

Joined: 25 Aug, 2015 | Location: ,

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