• Published : 27 Aug, 2015
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कुछ देर ठहर कर क्या राह को मंज़िल नहीं बना सकते,
बरसात को भूल कर सिर्फ़ बादलो मैं घर नहीं बना सकते

यूँ भागता भागता मंज़िल तक पहुँच भी जाऊं तो,
वो मंज़िल मेरी मंज़िल हैं इसका यकीन कैसे करूँ

उस मंज़िल से भी इक राह निकलेगी ज़रूर,
तो इक नई मज़िल की तलाश क्या मैं फिर से करूँ

इसी कशमकश में बिता दूं अपनी ज़िंदगी के यह हसीन पल,
या फिर तेरी आगोश को ही अपनी मंज़िल समझ तेरा सजदा करूँ

क्या आगे बड़ना ज़रूरी है, क्या ठहराव अंत का सूचक है,
अगर है भी तो मैं क्यों इस सत्य से डरूँ

कल मेरी मंज़िल पर साथ तेरा हो ना हो,
क्यों ना आज मैं इस राह को ही अपनी मंज़िल करूँ॥

About the Author

Hemant Vijh

Joined: 21 Aug, 2015 | Location: , India

With over twenty years of professional experience and having travelled the globe for his work Hemant likes to spend his spare time weaving his personal experiences in words, shaping them into short hindi poems. Apart from his own experience his ...

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