आँखें सूख जाती है मुन्तजिर हर उस किसान कि
जब बादल नहीं बरसते तो किसान बरस जाता है
बेटी को ब्याहने के लिए जब पैसे नहीं होते
तरह तरह के कर चुकाने का सरकारी फरमान आ जाता है
बंधा है घर से खेत तक के रास्तों पर वो
खाली हाथ शाम को घर जाने से हर किसान कतराता है
घर पे आटा नहीं, न बाजरा है न चावल है
भूखे पेट रखने के डर से बच्चों को मन उसका थरथराता है
शाम को जिस चूल्हे पे रोटी पकनी चाहिए
वही रेत देखकर किसान टूट जाता है
वजूद हर पल जिसका खतरे में रहने लगा इन दिनों
न जाने क्यूँ वही देश का अन्नदाता कहलाता है
रेशे पिघलते नहीं, हड्डियां गलती नहीं, लाल बत्ती आ जाती है
चिता जलने के बाद ही किसान कुरते पायजामे वालों का साथ पाता है
आहिस्ता से ज़ख्मों कि पपड़ी सूख कर झड़ जाती है
इसी के साथ किसान के परिवार का नया साल शुरू हो जाता है
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