आदि, ये क्या बचपना है?मैंने एक बार कह दिया न तू कहीं नहीं जाएगा।
-पर माँ आज मेरा जाना बहुत जरूरी है। इस प्ले में बहुत अच्छा रोल मिला है मुझे। प्लीज मुझे जाने दो,, प्लीज।
-तेरा दिमाग तो ठीक है ? शहर की हालत देखी है? अभी पिछले ही हफ्ते कर्फ्यू हटा है। कहीं कोई बात हो गयी तो!! नहीं जा अन्दर ,मैं तुझे हरगिज नहीं जाने दूँगी।
– अरे माँ तुम भी न बच्चों जैसे डर रही हो! वहाँ टाउन हाल में इत्ते बड़े-बड़े लोग आएँगे। कोई खतरा-वतरा नहीं है मुझे।और वैसे भी तुम्हारा बेटा हीरो है, पूरा शहर जानता है मुझे।
– तुझे मेरी बात नहीं माननी मत मान । जा कर अपना नाटक नौटंकी; पर मेरी कसम खा कि तू मंदिर वाले लम्बे रास्ते से जाएगा। शार्टकट के लिए वो मुसलमानों की बस्ती की तरफ से नहीं।
– ठीक है मेरी माँ , जैसा तुम कहो। चलो अब दही चीनी खिलाओ जल्दी । बाप रे बाप दस बज गये।
दही चीनी खा और माँ से झिड़की भरा आशीर्वाद लेकर आदि तेज कदमों से चल पड़ा। आज उसका नाटक देखने शहर के बड़े-बड़े लोग आएँगे। अशफा़क उल्लाह खान बना है,आदि। बिस्मिल और रोशन के साथ अपने कुछ आखिरी डाएलाॅग दोहराता हुअा , वो मंदिर वाली गली से मुड़ा ही था कि पीछे से सिर पर लाठी की चोट पड़ी । टप टप गिरती खून की बूँदे और बन्द होती अाँखों के दौरान आदि ने ध्यान से देखा।
उसे मारने वाले तो हिन्दू थे!!!!
उधर टाउन हाॅल में आदि के न पहुँचने पर उसके रोल के लिए किसी और को खोजा जा रहा था और इधर कीचड़ में पड़े उस कागज में बिस्मिल कह रहे थे-
अशफ़ाक मियाँ-जितना ये मुल्क मेरा है, उतना ही तुम्हारा भी..............
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