खत
चिठ्ठी लिखे अर्सा बीत गया ।
कुछ नई खबर, कुछ चुलबुली बातचीत ,
इंतज़ार में मौसम बदल गया।
ऐसा क्या समय के पाबंध हो गये ?
बाबा? खत लिखना तुम कब से भूल गये ?
हर छुट्टी तुम्हारी बाट देखा करती हूँ ।
हर रात, तारों में तुम्हारी परछाई देखा करती हूँ ,
उन कन्धों के झूले की आस लगाये बैठी हूँ ।
क्या हाल है, कैसे हालत हैं?
रूठे हो क्या? ऐसी क्या बात है?
शरारत समझ के ही माफ़ कर दो ।
ऐसी भी क्या चुप्पी? अब तो जाने दो ।
जीवन की रेखा बहुत सीमित है ,
अब तोह मुझको मनाने दो ।
कक्षा में एक नई सहेली बनी ,
कल माँ के चेहरे पर फिर हस्सी नही खिली -
फिर भाई ने बौख्लाके गिलास तोड़ दिया,
दादी माँ ने सुबह नाश्ते से फिर मुह मोड़ लिया ।
घर में एक चीरता सा सन्नाटा महसूस होता है ,
हर बार जो तुमसे मतभेद हुई, सोच के अफ़सोस होता है ।
याद तुम्हारी बेहद आती है,
तस्वीरों के संग, बस जिंदगी कट ही जाती है ।
बस एक झलक, एक बार यादों से बाहर मुलाकात मुमकिन नही?
एक छोटा सा ख़त भी क्या तुमको मंज़ूर नही?
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