• Published : 10 Feb, 2016
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मेरी काया एक पतंग थी जिसे चाँद को मिलना था

पर पतंग की डोर दूसरे के हाथ में थी

डोर वाले हाथ बदलते रहे, और मेरी उड़ान भी

पतंग कभी लहराती, कभी दिशा बदलती

पर उम्मीद का धागा न तोड़ती

गिरती-उठती , चक्कर खाती

कभी मंज़िल से आँख न हटाती

पर बीच में बादलों के जिन्न आ गए

ज्यों हो आसमान के मालिक, चाँद के पहरेदार

उनके बीच रास्ता बनाना था

क्योंकि तकाज़ा था इश्क़ का, जूनून का, ग़ैरत का

चाँद को भी क्या पड़ी थी जो दो कदम आगे बढ़ाता

वो अपनी चाल चलता रहा

कभी अमावस, कभी ग्रहण, आंखमिचौली करता रहा

तो कभी तारों की महफ़िल जमाके हँसता

जाने योगी था, दरवेश या फिर कोई नाशुक्रा-बेफ़िक्रा

पर तलब तो मुझे थी

 

अपनी पीठ पर चाँद का नाम जो गुदवाया था

सो काया छोड़ दी, हवा बन गयी

और बादलों को चीरकर चल पड़ी

बेहिचक , बेशरम और बे-इंतज़ार …………….

About the Author

Amreetaa Roy

Joined: 09 Feb, 2016 | Location: , India

a corporate Lawyer, a Poetry writer and a film Script writer based in Mumbai lives life of a woman, mother and wife....

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Kaya, Patang aur ek Chaand
Published on: 10 Feb, 2016

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