इक बार मोहब्ब्त में वो दौर-ए-सितम देखें
हम सोज़-ए-जुनूं समझें जब रोज़-ए-अलम देखें
गुज़रा था ज़माना भी आग़ोश-ए-मोहब्ब्त में
दिल को है ख़लिश ऐसी अब जौर-ओ-सितम देखें
इक बोझ गिरां दिल पर तबियत ने मेरी रखा
चाहे है कि सर अपना ख़ुद कर के क़लम देखें
मिन्नत ने हमारी तो रुसवा ही किया हम को
शिकवे ही को फिर क्यूं ना हम कर के रक़म देखेँ
उल्फ़त के तक़ाज़ों की हम पर है नज़र कैसी
कि पा-ए-अदू में भी हम दस्त-ए-करम देखें
जब तर्ज़-ए-तग़ाफ़ुल ही बाक़ी है तो "बाबर" फिर
क्यूं पेश-ए-फ़ुग़ां अपनी अन्दाज़-ए-सनम देखें
शब्दार्थ:
सोज़ ए जुनूं : दीवानगी की आग या शिद्दत
अलम : दर्द, तकलीफ़, पीड़ा, दुःख
आग़ोश : आलिंगन
गिरां : भारी
क़लम : काटना
मिन्नत : विनती, प्राथना
रुसवा : ज़लील होना
रक़म : लिखना, दर्ज करना
उल्फ़त : मोहब्बत
पा ए अदू : दुश्मन के पैर
दस्त : हाथ
करम : मेहेरबानी
तर्ज़ : तरीक़ा, ढंग
तग़ाफ़ुल : उपेक्षा, बेतवज्जुही
पेश : सामने
फ़ुग़ां : आर्तनाद या दुहाई
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