आजकल हम लोग मोबाइल (कांच के धरातल) मे इतने busy हो गए है, उसी को अपने विचारो को शब्दों में मैने पिरोने का प्रयास भर किया है...
कांच के धरातल पर बेतरतीब फिसलता, दो उंगलियों का आदमी....
बुलबुलों को हार में पिरोने को मचलता, दो उंगलियों का आदमी....
अपनो के मेले में खुद को अकेला मान, बेवजह सिहरता, दो उंगलियों का आदमी...
पासवर्ड के याददाश्त-झमेले में, अपने पास के वर्ल्ड को भूलता, दो उंगलियों का आदमी...
अपडेट-जुगनुओ सा बारह-मास, चौबिस-तास तरसता, दो उंगलियों का आदमी....
ठंडी-एसएमएस-ऊन सैकड़ो सलाईयो पर यू ही लपेटता, दो उंगलियों का आदमी...
गर्मजोश-अंगीठी की नर्म आंच में, खारा-पानी उड़ेलता, दो उंगलियों का आदमी...
वेब की ऑनलाइन चिरंजीवी सेल के ढेर में, डिस्काउंट टटोलता, दो उंगलियों का आदमी...
मुबारक-बात के नेताई पंचांग के एड में, त्यौहार मटोलता, दो उंगलियों का आदमी...
केबल-कुऍ (न्यूज-चैनल) के कव्वौ की भौ-भौ चक्कलस से, बहलता दो, उंगलियों का आदमी...
भेड़ो की नस्लों का बौद्धिक-उत्कर्ष समझता, दो उंगलियों का आदमी....
कार-औ-मकां को पैमाना बना, हैसियत तौलता, दो उंगलियों का आदमी...
जमीं -औ-चाँद के टॉप-फ्लोर की लिफ्ट-सा खौलता, दो उंगलियों का आदमी...
द्रवित रेत के समुनंदर में डूब कर, पथरीला सोचता, दो उंगलियों का आदमी ...
मन-भर कचरा-मन को ब्रांड से ढककर, बेमन बहलता, दो उंगलियों का आदमी ...
उम्रभर के मौसम को कड़वी गोली समझ, एक पल में, निगलता, दो उंगलियों का आदमी...
बिग-बैंग से जन्मे कल्प-जीवन में, लम्हा-लम्हा सिमटता, दो उंगलियों का आदमी...
लम्हा-लम्हा सिमटता, दो उंगलियों का आदमी………………मयंक...कांच के धरातल स
Comments