खामोशियों से खेलकर लेता अंजाम डर है,
सिसकियों से मौत का पैगाम डर है ।
ना मासूमियत पहचानता, है जो इंसानियत से दूर,
उस इश्क़ का भी शायद इंतकाम डर है ।
रूह में लेता हैं अंगड़ाइयाँ जो दरबदर ,
उस मौत का भी तो दूसरा नाम डर है ।
आँखों का धोखा हैं , या हैं कहानी भर,
सच कहूँ तो आज तक बेनाम डर है ।
मौत बन जनाज़ो से करता तक़ल्लुफ़ वोह,
इश्क़ करता चींख से सरेआम डर है ।
खून के कतरो को पीता जाम में वो,
इस कदर उस रूह का क़त्ल-ए-आम डर है ।
लोग कहते हैं, वोह भी जज़्बात हैं इक,
फिर ना जाने क्यों इतना बदनाम डर है ।
तन्हाइयों में आता हैं वोह, रहना संभलकर,
सच्चे होसलों के आगे नाकाम डर है ।
आहटों में आता हैं वो नज़रे न मिलाना,
जिस्म को झंझोरता बेज़ुबान डर है ।
इस डर के खेल को तुम आसां ना समझना,
खेल खेलता मौत से खुलेआम डर है ।
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