• Published : 01 Sep, 2015
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अंजान शहर में कोई अपना बन आता है,

बिन बोले खुदा पर ऐतबार जगाता है,

 

लाख खन्जरो के दर्द सहे होंगे तुमने यहाँ,

किसी का एक आँसू, अपनत्व जताता है,

 

समय कहाँ रुकता है किसी के लिए कभी,

इंसान जो रुकता है, एहसास दिखाता है,

 

टुकड़ो में बाँटें है समाज आजकल सभी,

बाँट कर वो खुशियाँ, जाने क्या पाता है,

 

हसरतो की उलझी लटो में खोए हो तुम,

एक निवाला वो ग़रीब, बाँट कर खाता है,

 

हर तरफ भय और लालच के डाले है पर्दे,

ऐसे में भी वो, बस बच्चो सा मुस्काता है,

 

ना पूछो अच्छाई की परिभाषा तुम मुझसे,

दान करता है वो, खुद को इंसान बताता है,

 

नतमस्तक हो जाता हूँ समक्ष उसके,

परायो को भी जो, अपनो सा सहलाता है,

 

ऐसा ही होगा शायद वो फरिश्ता 'साथी',

अंतर्मन में जिसके, राम बस जाता है ||

 

About the Author

Diwakar Pokhriyal

Joined: 28 Mar, 2014 | Location: , India

Diwakar Pokhriyal is a writer by passion. He has completed his engineering from NPTI, Delhi, & MBA from Great Lakes Institute of Energy Management, Gurgaon in field of Energy. He has written 11 poetry books and 1 short story collection which...

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